जला है कोई और मैं आग लगाने लगा हूँ
मरा है कोई और मैं गीत सुनाने लगा हूँ
कवि हूँ कवि का धर्म निभाऊँगा ज़रूर
दुनिया के ग़म को भुनाने लगा हूँ
ऐसा नहीं कि पहले लड़ाई-झगड़े होते नहीं थे
अब हर रंजिश को जामा नया पहनाने लगा हूँ
ये कौम कौम नहीं, है दुश्मन हमारी
कह कह के भाईचारा बढ़ाने लगा हूँ
ख़ुद निकल आया हूँ मैं कोसों दूर वहाँ से
अब उनको ख़ुद्दारी से जीना सीखाने लगा हूँ
बात औरों की नहीं, कही अपनी है यारो
फिर न कहना कि आईना दिखाने लगा हूँ
Rahul Upadhyaya |